✍️मौला जब बारिश देता है तो कुएँ की औकात कहाँ देखता है।

#Birthday_Wishes

04/05/2019


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लिखना है उनके लिए जिन्होने मुझे खुशी के आँसू दिये, जानता हूँ सब कुछ नहीं लिख पाऊँगा। एक पल चैन से जिएंगे, इसलिए हर पल खटते रहे। ज़िंदगी की टिक-टिक किसे कितना मौका देती है। हर कोई खतरनाक इंतिहा तक मसरुफ़ है। बाजार ने और अधिक स्वार्थी बनने में मदद दी है ताकि इन्सानों से अधिक उत्पादों पर हमारी निर्भरता हो और किसी का मुनाफा पहाड़ बनता जाय। इस बीच आपका जन्मदिन आता है और आपके अपने, बाजार और कभी न रुकने वाली घड़ी का घमंड तार-तार कर देते हैं।

मेरी अनगिन कमियों और अपूर्णताओं के बावजूद अपनों ने, दोस्तों ने अपने कीमती पल में से कुछ अनमोल पल मेरे लिए दिया। क्या होता है जन्मदिन, कुछ भी तो नहीं। हर मिनट कितने ही जनम लेते हैं। पर अपने अपनों को अपनत्व महसूस कराने का एक अवसर बना देते हैं। फोन काल्स, संदेश, व्हाट्सप्प, फेसबुक पोस्ट, कितने ही माध्यमों पर प्यार लुटा दिया दोस्तों ने। मै, खुद को आपकी नज़र से देखता हूँ तो पहचान नहीं पाता।

दो दिन में आठ केक कटवाए मेरे अपनों ने मुझसे। क्या कहूँ, आँख सुंदर हो तो काला काजल भी कहर ढाता है, ईश्वर ने जो मुझे अपने दिये हैं वे आँख सरीखे ही तो हैं, इनके बिना जीवन अधूरा ही नहीं अंधा भी होता। सोचा, एक-एक शुभकामनाओं का जवाब दूँगा, क्योंकि आज के समय में किसी और के लिए समय निकालना, इतना आसान नहीं। जवाब देना शुरू किया फेसबुक पर, फिर से संदेश पढ़ने शुरू किए और यह भी पूरा न कर पाया क्योंकि मुझे पहली बार पता चला कि कमेन्ट की भी एक सीमा है और मै वो सीमा पार कर गया था।

घर पर पत्नी ने लगातार दोस्तों की आवभगत की, मै निठल्ला बस बात करता रहा सबसे। परिवार, दोस्त, फेसबुक दोस्त, ऑफिस कलीग्स, विद्यार्थी सब शामिल हुए मुझे खुशियाँ देने में। हाथ जोड़ बस इतनी विनती रहेगी कि हमेशा यूं ही नज़ारे को खास कर देने वाली नज़र बनाए रखिएगा, ज़िदगी का कोलाज खूबसूरत होता जाएगा।

आप ही सब मेरा मै बनाते हैं ! तो जैसे तैतीस गुजरे, बाकी भी महक जाएंगे।

हार्दिक आभार !!!

स्त्रीवाद की भोथरी समझ

08.03.2020

Image Source: Monthly Review


घटना 1. महिला सुपरवाइजर महिला छात्र से: शादी करने जा रही हो तो PhD नहीं करवा पाऊँगी मै, डेडलाइन पर राइट अप नहीं दोगी तो कौन तुम्हारे हसबैंड से एक्सक्यूज सुनेगा।

(छात्रा MPhil में सबसे ज्यादा मार्क्स लाने के बाद भी अखिरकार PhD छोड़ने का फैसला करती है।)

घटना 2. महिला HR नए महिला टीचर से इंटरव्यू के बाद: आप शादीशुदा हैं?
महिला टीचर: हाँ
महिला HR: बेबी कब तक प्लान करना है?
महिला टीचर: अभी तो नहीं
महिला HR: लिखकर दे दीजिए कि अगले दो साल आप बेबी प्लान नहीं करने वाली।

(महिला टीचर वह नौकरी छोड़ना मुफीद समझती है)

दोनों घटनाएँ सत्य हैं। महिला सुपरवाइजर और महिला HR को समाज में स्त्री सशक्तीकरण का प्रतीक मानते हुए कई सम्मान मिल चुके हैं।

महिला दिवस पर एक बात कहना चाहता हूँ जो मुझे बेहद अखरती है वह यह कि अधिकांश तथाकथित आधुनिक महिलाएँ बेहद गहरे में खतरनाक स्तर तक पितृसत्तात्मक मनोवृत्ति (Patriarchal mindset) की होती हैं और उन्हें भान भी नहीं होता, कुछ स्त्रीवाद (Feminism) का अर्थ स्त्रीसत्तात्मकता (Matriarchy) समझती हैं।

बेहद कम स्त्रियाँ समझती हैं कि स्त्रीवाद का अर्थ जेंडर की समानता (Equality of Gender) नहीं, बल्कि लिंग की समानता (Equality of Sexes) है। स्त्रीवाद, समानता का उन्वान है और यह स्त्री, पुरुष और ट्रांसजेंडर की बात समान शिद्दत से करता है। पुरुषों की तो बात ही छोड़िए पर अगर स्त्री होकर स्त्रीवाद की भोथरी समझ है तो इसका जिम्मेदार स्वयं स्त्री या पुरुष ही नहीं बल्कि बाजार और शिक्षा व्यवस्था भी है।

इस समझ के स्त्री-पुरुष दुर्भाग्य से शिक्षा, साहित्य और मीडिया में भी हैं।

#श्रीशउवाच

साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता, जब भी होगा जोड़ेगा.

साहित्य शब्द कानों में पड़ते ही सहित वाला अर्थ दिमाग में आने लग जाता है. साहित्य में सहित का भाव है. कितना सटीक शब्द है. साहित्य शब्द में ही इसका उद्देश्य रोपित है. साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता, जब भी होगा जोड़ेगा. इतना हर लिखने वाले को स्पष्ट होना चाहिए. इसीलिये जरुरी नहीं हर लेखन साहित्य में शामिल हो. मेरी दिक्कत ये है कि कुछ लोग साहित्य मतलब महज कविता कहानी समझते हैं. और इसे भी वो 'सब कुछ समझ सकने के गुरुर के साथ' समझते हैं-मतलब ये कि उन्हें सही समझाना कठिन भी है. कविता मतलब भी वो कुछ यूँ समझते हैं कि एक लिखने की शैली जिसमें ख़ास रिदम और एक पैटर्न की पुनरावृत्ति होती है जिसकी विषयवस्तु अमूमन प्रकृति अथवा नारी की खूबसूरती होती है. कहानी मतलब भी कि एक नायक होगा..एक नायिका होगी. ज़माने से लड़ेंगे-भिड़ेंगे-फिर जीत ही जायेंगे. 

एक सीधी सी बात समझनी चाहिए कि किसी भी विषय-विशेष में उतनी ही गहराई और आयाम होते हैं जितनी कि ज़िंदगी की जटिलताएं गहरी होती हैं. इस तरह कोई भी विषय विशेष का महत्त्व किसी भी के सापेक्ष कमतर या अधिकतर नहीं होता. मुझे क्या फर्क पड़ता है कोई चीज कोई ठीक से समझे या ना समझे..वैसे भी ये तो सदा से रहा हैं, कुछ लोग ही सम्यक बोध रखते रहे हैं. और मै कौन -मुझे भी कितना कुछ का कितना सम्यक बोध होगा...रब ही मालिक है. दरअसल दो ही दिक्कत है मुझे. पहला तो आग्रही अबोध अक्सर सत्यान्वेषी के लिए रोड़ा बन जाता है दूसरा ज्ञान का प्रसार समाज का समावेशी विकास करता है- तो यह प्रक्रिया भी अवरुद्ध हो जाती है. मुझे साहित्य एक जादुई चीज लगती है क्योंकि यह भाषा की महत्ता को एक नया आयाम देती है. अभिव्यक्ति की सहूलियत जो हमने भाषा का आविष्कार कर अर्जित की है, साहित्य के माध्यम से हम मानव मन, समाज-देश एवं संबंधों की जटिलताओं को भी सटीक व्यक्त कर पाते हैं. यह इतना आसान नहीं होता. साहित्य इस प्रक्रिया को सुगम्य बनाता है. परस्पर विरोधी भावनाओं को उकेरना हो, जटिलताओं को पिरो पाठक के समक्ष शिद्दत से पेश करना हो और समय एवं स्थान की मर्यादा सुरक्षित रखनी हो तो केवल साहित्य की अन्यान्य विधाएं ही यह कर सकती हैं. 


(चित्र साभार: गूगल इमेज )

हम ईर्ष्यालु भी हैं और प्रेमातुर भी. जिम्मेदार भी और लापरवाह भी. राष्ट्रीय हैं हम और क्षेत्रीय भी. क्षण क्षण हम अनगिनत विमाओं पर सवार हो जाते हैं. इस यथार्थ को कैसे दर्ज करेंगे...किस परखनली या बीकर में सुरक्षित रख पाएंगे इसे. इसे बस साहित्य ही समाहित कर सकेगा. हुए दंगे, वज़ह राजनीतिक रही होगी, प्रशासनिक क्षमता असफल हुई होगी, तकनीकियां दंगों को रोकने से ज्यादा फ़ैलाने में प्रयुक्त हुई होंगी, इतिहासकार, अतीत से वर्तमान की तुलना कर सके होंगे जबकि दंगे जारी होंगे, वैज्ञानिक, इंजीनियर, अध्यापक डॉक्टर कुंठित हुए होंगे..सुविधानुसार दोषारोपण किया होगा, पर दंगों में मानव मन ने क्या महसूस किया, कैसे दंगे अपने उन्माद में सभी पदवियों से निकृष्टतर करवा लेते होंगे..कैसे समस्त ज्ञान-विज्ञान का महँ स्तर भी उस उन्माद के आगे नतमस्तक हो जाते हैं, आरोप-आक्रमण-बचाव की राजनीति और आर्थिकी का वह लेखा जोखा जिसमें हुक्मरानों की नहीं अपितु आम जन मानस का चेहरा प्रतिबिंबित हो ऐसा बस साहित्य की किसी विधा में ही किसी समर्पित सहित भाव वाले साहित्यकार की लेखनी में अभिव्यक्त हो सकता है. एक जिंदा इतिहास अगर उसी रौ; जिसमें कि जीवन चला हो उस समय विशेष में पढ़ना है, महसूसना है तो बस साहित्य की किसी विधा में ही यह तलाश पूरी हो सकती है. सभी शास्त्रों में निष्पक्ष लेखन पर जोर है और साहित्य में सहित भाव पर जोर . यहीं निर्णायक अंतर हो जाता है. इंगिति इतनी ही है कि साहित्य को पढना-पढ़ना-जानना-समझना उतना ही जरुरी है जितना कि कुछ भी और दुनियादारी की समझ.