यूँ ही बस इधर-उधर विचरना मन का


डायरी के पन्नों में क्या कुछ आ जाता है..कई बार उसकी कोई खास वज़ह नहीं होती, यूँ ही बस इधर-उधर विचरना मन का...कोई सन्दर्भ- प्रसंग नहीं..बिलकुल ही उन्मुक्त....उनमे से कुछ आपके समक्ष...

किस्मत से मै भिखारी हूँ 
और किस्मत से ही मुझे 
भीख मिलती है. वरना 
'आगे बढ़ो' की सीख मिलती है..!!!








सिद्धांत एक ऐसा पुरुष है, जिसे कभी भी एक पतिव्रता नहीं मिलती..!!!


 "जान लेकर करता है 
खामोशी की शिकायत 
दर्द की बात लिखता है 
दर्द देने वाला.."


४.  "ख़ता तब से शुरू हो गयी बेइंतिहा  
    आजमाना जबसे जनाब ने शुरू किया.."


देखें; 'श्रीश उवाच' पर- कि;

चित्र साभार:गूगल 

यदि हर राज्य की शिक्षा प्रणाली में एक स्तर पर मौलिक समानता होती..कई जरूरी विभिन्नताओं के साथ तो...

आज सोचा कुछ कैम्पस-चर्चा हो जाए. JNU की प्रवेश परीक्षा प्रणाली बड़ी अलहदा है. लगभग हर स्कूल के हर सेंटर की थोड़ी अलग-अलग. देश भर में और कुछ देश से बाहर भी इसके सेंटर बनाये गए हैं जहाँ प्रवेश परीक्षाएं एक साथ एक ही समय में लीं जाती हैं. एक खास आकर्षक अनुशासन के साथ यह परीक्षाएं संपन्न हो जाती हैं. अगले दो से तीन महीनों में परिणाम आ जाता है. साक्षात्कार होता है और उत्तीर्ण अभ्यर्थी चयनित हो जाता है. यह विवरण देना मेरा मंतव्य नहीं. मै तो इसके आगे की कहना चाहता हूँ. विद्यार्थी आता है. एक नया और जोशीला माहौल मिलता है. धीरे-धीरे वो यहाँ रमने लग जाता है. छोटी-मोटी परेशानियाँ आती हैं, विद्यार्थी जूझता है, इस दरम्यां कुछ बेहतरीन चीजें वो सीख लेता है. एक बात तो तय ढंग से कही जा सकती है कि कुछ समय बाद वह वैसा नहीं रह जाता, जैसा कि वह प्रवेश के समय में होता है. मानसिक आयामों  में वृद्धि तो होती ही है वरन अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि भोजन व दिनचर्या की संगतता के कारण शारीरिक विन्यास भी खिल उठता है. अचानक से ही उसकी रोजाना की चर्चाएँ क्षेत्रीय से राष्ट्रीय होते-होते अंतर्राष्ट्रीय होने लग जाती हैं. कई बेहतरीन सामग्रियां , जर्नल्स, मैगजीन, विश्वस्तरीय फिल्में और सेमिनारों से उसकी अंतर्क्रिया होती है. और सबसे बढ़कर यहाँ का अनौपचारिक माहौल. पर कुछ बातें खटकती भी हैं. जैसे यहाँ की दाखिला-प्रक्रिया. चयन के बाद admission की इतनी लम्बी प्रक्रिया कि दो-तीन दिन से हफ्ते तक तो लग ही जाते हैं. बहुत सारा कागज..और ढेरों लिखने की प्रक्रिया. और सेमेस्टर सिस्टम होने की वज़ह से यह प्रक्रिया हर छह महीने पर दुहराई जाती है. मुझे नहीं लगता इतने जागरूक कैम्पस में यह भारी -भरकम प्रक्रिया जिसमे अत्यधिक समय, अत्यधिक कागज और अत्यधिक विभागीय दौड़ा-भागी होती है; कहीं से भी सुसंगत है. राहत की दो बातें हैं--यहाँ का कर्मचारी स्टाफ बहुत ही सहयोगी और मृदुभाषी है और सीनियर  विद्यार्थी स्वप्रेरणा से सहयोग के लिए प्रस्तुत रहते हैं.


दूसरी महत्वपूर्ण बात जो मै कहना चाहता हूँ वो हिंदी भाषा-क्षेत्र से आने वाले विद्यार्थियों के सन्दर्भ में है. मीडियम आंग्लभाषा है पठन-पाठन की; तो अचानक से उन्हें सबकुछ सीख लेना होता है. उनकी प्रतियोगिता उन्हीं लोगों से होती है जो english background से होते हैं. भारत में हर राज्य की शिक्षा प्रणाली अलग-अलग है. उत्तर-प्रदेश में, जहाँ अभी हाल तक A B C D कक्षा- छह से पढाई जाती रही है. और बाकि कई दूसरे राज्य जहाँ अंग्रेजी, प्राम्भिक स्तर से ही पढाई जाती है. यह विभेद शिक्षा के उच्च स्तर पर आकर खासा निर्णायक हो जाता है. सिलेबस का दबाव इतना कि इतना समय नहीं कि इस विभेद को पाटने की कवायद भी की जाए. वैसे कैम्पस में एक रीमीडिएल कोर्स चलता है अनौपचारिक रूप से पर वह ना तो पर्याप्त ही है और ना ही उसका संतोषजनक स्तर ही है. मै थोड़ा भाग्यशाली रहा हूँ कि इंग्लिश में हाथ उतना तंग नहीं है पर मैं देखता हूँ कि पहले सेमेस्टर में कुछ बंधुओं का क्या हाल होता है. JNU में प्रवेश की खुशी फुर्र से उड़ जाती है और सांस थामकर चीजें जल्द से जल्द सींख लेनी होती हैं.
मेरा मंतव्य किसी को दोष देना नहीं है. यह समस्या नहीं होती यदि हर राज्य की शिक्षा प्रणाली में एक स्तर पर मौलिक समानता होती..कई जरूरी विभिन्नताओं के साथ. विद्यार्थियों में प्रतिभा की कमी नहीं है, उनके प्रयत्नों को भी कम करके नहीं आँका जा सकता पर जो मानसिक तनाव उन्हें झेलना पड़ता है वह कई बार उनके मनोबल को तोड़ देता है और अध्यापकगण सहानुभूति रखकर भी कुछ ख़ास सहायता नहीं कर पाते.
चित्र साभार:गूगल   

शब्द मेरी माँ जैसे हैं..

{आजकल खासा व्यस्त हूँ, और शायद आगे भी रहने वाला हूँ. चाहकर भी मित्रों की ब्लॉग-प्रविष्टियाँ पढ़ नहीं पा रहा हूँ. एहसास है कि क्या खो रहा हूँ...कुछ लिख भी नहीं पा रहा हूँ. पर जल्दी ही सबकुछ व्यवस्थित करने की कोशिश करूँगा. Ph.D. की synopsis का ड्राफ्ट तैयार 
करते हुए एक छोटी सी कविता सूझ गयी तो जल्दी में इसे आप सभी के समक्ष रख रहा हूँ... }



एक अध्यापक कहते हैं; 


'शब्दों' के एक अपने  
निश्चित अर्थ होते ही हैं, और  
उनका एक निश्चित प्रभाव होता ही है...|  


पर, एक वक्ता कहता है;  


'शब्दों' का अपना अर्थ  
इतना महत्व नहीं रखता, 
वक्ता उसमे मनचाहा  
अर्थ डाल देता है...  


सोचता हूँ; शब्द मेरी माँ, जैसे हैं..  


उनका हमेशा एक निश्चित  
मंतव्य होता है, जब वो हाथ लगा, 
सहलाते हुए समझाती हैं, पर मै... 
उन मर्यादाओं में मनचाही  
उच्छृंखलताएँ कर ही  
लिया करता हूँ...|  


यकीनन, शब्द मेरी माँ जैसे हैं...!!!  


(चित्र साभार: गूगल)

नयी पौध की नीम के पेड़ पर अर्द्धनारीश्वर चर्चा


अंतरतम से और सर्वत्र से संवाद अल्केमिस्ट में वृद्ध पाउलो कोएलो भी चाहते हैं और जवान चेतन भगत भी. one night @call centre में चेतन भगत inner call की बात करते हैं. सरल इंग्लिश में लिखी गयी किताब, प्रवाहमयी. पर ९०% किताब, व्यक्ति के भौतिक विलासों पर है तो अचानक अंतिम १०% भाग में लेखक को inner call की याद आ जाती है. शायद लेखक कहना चाहता है, कि इस inner call को ignore करके कुछ भी संभव नहीं है, कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता. पर ये इतना अचानक घटता है उपन्यास में कि नाटकीय लगने लगता है. वैसे विषयवस्तु की दृष्टि से पुरी किताब साधारण लग रही होती है कि वह नाटकीय मोड़ आता है और पढ़ना निष्फल नहीं जाता.  

राही मासूम रजा की 'नीम का पेड़' और नागार्जुन की 'नयी पौध' भी पढ़ी. 'नयी पौध' स्वतंत्रता पश्चात, स्वाभाविक परिवर्तनों का बिगुल बजाते युवाओं पर देसी ढंग से प्रकाश डालता है, नागार्जुन की अपनी खास शैली, जबरदस्त चमत्कृत करती है और खासा रोचक है. पर यही 'नयी पौध' रजा के 'नीम के पेड़' से उसकी छांह छीन लेती है, जबकि आजादी के कुछ दशक हो चुके हैं. रजा की प्रशंसा करूँगा कि महज कुछ पन्नों में उन्होंने बेहद कसी हुई कहानी कहते हुए नीम के पेड़ का दर्द बयां कर दिया है. मुझे मौका मिला 'विष्णु प्रभाकर' जी की रचना 'अर्द्धनारीश्वर' पढ़ने का. या तो मै अल्पवयस्क हूँ या निश्चित ही यथार्थ अनुभव नहीं है, इस उपन्यास के 'मूल प्रश्न ' का. अथवा इस पर मेरे विचार यों है--- स्त्री-पुरुष सम्बन्ध तर्क आधारित नहीं हो सकते, क्योंकि ये प्रतिक्षण शारीरिक व मानसिक दोनों स्तरों पर घटते-बढ़ते रहते हैं. मुझे नहीं लगता की इस सम्बन्ध को कोई निश्चित सिद्धांत दिया जा सकता है. इस आकर्षक खलील जिब्रान की टिप्पणी को भी नहीं कि --''स्त्री-पुरुष एक दुसरे का प्याला भर सकते हैं पर पीना अपने-अपने प्याले से ही चाहिए.''  

मुझे लगता है इस धरा का प्रत्येक मनुष्य, विभिन्न आयामों में अलग-अलग होता है, उसी तरह (स्वाभाविक ही है) प्रत्येक 'स्त्री-पुरुष सम्बन्ध' भी अपनी तरह का अकेला ही होता है. तर्क की गुंजायश व्यक्तिगत व उभयगत या पारस्परिक स्तर पर ही है, व्यापक स्तर पर नहीं. आदरणीय लेखक ने फ्रायड के मनोविज्ञान व भारत की प्राचीनतम विवाह-संस्था के आदर्शों में समन्वय, आज के जटिलतम समय में करने की कोशिश की है. वैसे यह उपन्यास बलात्कार के मनोविज्ञान से आधार पाता है, पर इस सन्दर्भ से बारंबार 'स्त्री-पुरुष संबंधों' पर ही टीका हुई है. अंत तक जाते-जाते, बल्कि माफ़ करिए मध्याह्न से ही उपन्यास के तर्क निरे काल्पनिक लगने लगते हैं.

"सर्वत्र" से संवाद



JNU में राजनीतिक जागरूकता जबरदस्त है, ऐसा शायद ही भारत में किसी और कैम्पस में हो...तो इसमे खास बात क्या है..? खास ये है कि यहाँ आपको अपने व्यक्तिगत राजनीतिक अधिकारों के लिए जरूरी नहीं कि आप किसी खास ग्रुप से हों, परंपरा से यह विकसित हो गया है और मै इसे करीब से देख रहा हूँ. पर एक दूसरी बात जो मुझे बेहद पीड़ा पहुँचती है वो ये कि जो छात्र-संगठन यहाँ राजनीति करते हैं वो अक्सर असली मुद्दों को गड्ड--मड्ड कर देते हैं ठीक राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की तरह. कैम्पस अंतर्राष्ट्रीय मामलों की तरफ बहुत संवेदनशील है (कम से कम चर्चा,पम्फलेट के स्तर पर), पर कई बार स्थानीय व राष्ट्रिय मुद्दे दरकिनार कर देते हैं. इसी प्रवृत्ति पर चुटकी लेते हुए, मेरे एक मित्र ने कहा कि- " people who are talking about America they don't know what is happening in Munirika.." मुनिरिका, JNU के पास की एक मार्केट है. खैर; अब पाउलो कोएलो की बात करते हैं. अल्केमिस्ट की कहानी कुल पांच से छः पेज में आ सकती है. पर कहानी कहना ही उद्देश्य नहीं लेखक का. लेखक को पाठक से आत्मिक संवाद करना है. ALCHEMIST--पूरी पुस्तक बोल के पढ़ा, क्योंकि पुस्तक बिलकुल पोएटिक थी. एलन क्लर्क ने क्या उम्दा इंग्लिश अनुवाद किया है, मूल पुस्तक पुर्तगीज में है, कुल ६२ भाषाओँ में अनुवाद हुए है इसके--गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में शामिल...हाँ तो बोल के पढ़ा एक-एक शब्द. जाने- अनजाने कोई गाढ़ी बात निकल के आ जाती थी..और विचारों के ये सुन्दर मोती हर एक या दो पैराग्राफ में ही मिलते रहते हैं. essence है अल्केमिस्ट का; कि-- "लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रक्रिया, लक्ष्य से ज्यादा महत्पूर्ण है..(कर्मण्ये वाधिकारस्ते.....); क्योंकि मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते आप वो नहीं रह जाते हैं जो रास्ते की शुरूआत में होते हो; तो फिर लक्ष्य बौना हो जाता है, आप बड़े हो जाते हो..." एक गहरा रूपांतरण घट चूका होता है..अल्केमिस्ट इशारा करती है कि 'जड़, चेतन से वैसे भिन्न नहीं है, जैसे आज समझा जाता है, प्रकृति तो जड़ कत्तई नहीं है. व्यक्ति को "सर्वत्र" से संवाद करना सीखना चाहिए.प्रकृति से भी और अपने अंतरतम से भी. मुझे अल्केमिस्ट बेहद पसंद आयी. शायद हर उत्साही के पास यह पुस्तक होनी चाहिए. पाउलो कोएलो की टिपिकल शैली बहुत भायी, मुझे. वैसे कुछ प्रतीक, बिम्ब ले रखे हैं प्रचलित अंधविश्वासों से पर लेखक के लिए महज यह जरिए रहा है. ये किताब पढ़कर, मै सोचने लगा कि पुस्तकें मानव जीवन में कितनी बड़ी अविष्कार हैं. किसी खास चिंतन में कोई व्यक्ति जाने कितने उतार-चढाव के बाद किसी अनमोल बिंदु पर पहुंचता है, उन्हें पढ़कर हम सहसा वहां पहुच जाते हैं, अपनी-अपनी प्रज्ञा से हम विचार करते हैं और उस दिशा में व्यक्तिगत प्रगति करते हैं. मुझे अर्जेन्टिनी लेखक बोर्खेज के शब्द याद आ रहे हैं.."पुस्तकें, सुख कैसे देती हैं, मै समझा नहीं सकता, पर मै कृतज्ञ हूँ, इस विनम्र चमत्कार के लिए.."


चित्र साभार:गूगल

चीनी खाने और गन्ना बोकर, चूसने में अंतर है, नायपाल जी.


जे.एन. यू में मेरी पहली anchoring जबरदस्त सराही गयी, माँ शारदा को प्रणाम. प्रो. घोष की रसिकता पर मैंने यूं चुटकी ली : "..बदन होता है, बूढा, दिल की फितरत कब बदलती है, पुराना कूकर क्या सीटी बजाना छोड़ देता है....." (संपत सरल) खूब compliments मिले. मुझसे जुड़े सभी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष को मेरा नमन, धन्यवाद. मुझे जो एक तरह की cultural भूख लगती रहती है, इसने संतृप्त किया. निष्क्रिय नहीं रहा इन दिनों. Research, Blogging आदि में उलझा रहा और बाकि समयों में newspaper और magazines ब्लोगिंग में कुछ लोग बड़े ही अच्छे मिले हैं, सीखने के लिए बहुत कुछ, वाकई...इधर साहित्यिक किताबें भी खूब पढी. अभी कुछ देर पहले ख़त्म की, वी. यस. नायपाल की 'A Wounded Civilization'. मानता हूँ, कुछ देर बाद यह पुस्तक मेरे लिए सहनीय नहीं रही. किसी देश को महज कुछ यात्राओं से कैसे जाना जा सकता है..? सर नायपाल ने कुछ मनपसंद किताबें चुनीं भारतीय लेखकों की, जिनमे उन्हें दोमुहें तर्क मिले; गांधी का व्यक्तिगत जीवन व सार्वजनिक जीवन चुना ( मानो, गांधी की गलतियाँ, भारत की गलतियाँ हों...) और कुछ विशेष मानक प्रश्न, टैक्सी-ड्राइवर, अनपढ़ गांव के सरपंच, स्वयं-घोषित कुछ आधुनिक औरतों से पूछ कर नायपाल ने भारत को एक आहत सभ्यता कह दिया. वैसे पुस्तक १९७५-७६ में लिखी गयी. भारत की आलोचना का इससे सुन्दर समय क्या होगा--क्योंकि आपातकाल ही उन्हें भारत के सम्पूर्ण जटिल-सरल कलेवर की चाभी प्रतीत हुई. कम से कम गांधी का प्रभाव निर्णायक रूप से असफल रहा( कमोबेश राजनीतिक रूप में), यह उन दो-तीन सालों में संस्थात्मक-औपचारिक तरह से गोचर हो रहा था. जैसे नायपाल के भेष में चर्चिल ने अट्टहास किया हो, जो स्तब्ध हो, भारत में democracy की स्थापना पर खिल्ली उड़कर कि ये अभी टूटा नहीं , बटां नहीं, उधर की संस्थाओं से अपने मूलभूत अभिसमयों को भारतीय कैसे सींच पाने में सक्षम हो पा रहे थे आखिर...? आपातकाल ने मानो उसे मौका दिया हो अपना बड़प्पन साबित करने का...नायपाल ने भारत का वही इतिहास सोखा है जो त्रिनिदाद में पश्चिम ने उन्हें रटाया है. उनके लिए इतिहास, history है, जो हेरोडोटस से शुरू होता है. पश्चमी पानी में पनपे नायपाल भारत की ग्रामीण संस्कृति में महज गन्दगी ही निरख पाते हैं....पश्चिम की तराजू भी ले ली और बाँट भी वहीं से उठा लाये, और दूसरे पलड़े पर भारत के कछुए को तौल रहे हैं. उसकी मजबूत खाल पर खड़े हैं, जब ये नहीं टूट रही है तो इसे भारतीय कर्मकांड की मजबूत संकीर्ण परंपरा बता रहे हैं. भारत की विनम्रता, उसकी सकुचाहट को उसकी ऐतिहासिक कमजोरी बता दे रहे हैं. गांधी जी की आलोचना कर, कद तो बढ़ जायेगा पर उस कद की उम्र घट जायेगी. नायपाल लिखते हैं कि भारत विचारधारा से शून्य है. नायपाल उसी भट्टी के भाड़ हैं, जो असल में विचारधारा की शूरूआत, यूरोप के renaissance से मानता है. कहते हैं कि भारत एक राष्ट्र नहीं है..मुझे बताइए कि कितने ऐसे देशों को आप nation कहेंगे,जो एकदम से उन्ही वेस्टफालिया के सिद्धांतों के समरूप हों,---और ये अनिवार्यतः जरूरी ही क्यों है..? आप भारत में भारत खोजने आये थे कि यूरोप..? चीनी खाने और गन्ना बोकर, चूसने में अंतर है, नायपाल जी. ५० साल भी नहीं हुए थे तबतक(१९७५-७६) भारत को आजाद हुए और आप, भारत की मौलिक विकास-अविकास यात्रा की तुलना, पश्चिम के उन मानकों से करने लगे, जिन्हें उपजने में पश्चिम में सैकड़ों साल, बर्बर क्रांतियाँ, दमन आदि हुए. प्रत्येक देश की अलग प्रकृति, अलग साधन व अलग तरह के लक्ष्य होते हैं...और भारत यदि कमोबेश शांतिपूर्ण ढंग से विकसित होने में समय ले रहा है तो आपको आपत्ति क्यूं है...? आप कहते है; भारत के व्यक्ति में "immature ego" है. तो क्या यह खून में है...? खैर आपकी इस बात से आंशिक तौर पर सहमत हूँ, कि नक्सलवाद एक बौद्धिक त्रासदी थी और इसने भारत की एक पीढ़ी को लील लिया..,,...,, पर यह भी हमारे चेतना का एक अंग है..इसका अनुभव भी एक सामाजिक परिप्रेक्ष्य देता है. नायपाल जी मै समझता हूँ, भारत जैसे देशों को तर्कों से खारिज कर देने का भी एक सुख है, जो आपने इधर की कड़ी, उधर से जोड़कर ले लिया. ... मै सोचता हूँ कि किसी भी देश की सभ्यता को फूहड़, संकीर्ण कहना और कतिपय तर्कों व संयोगों से सिद्ध कर देना ही कौन सी सभ्यता है...? खैर ऐसी पुस्तकें एक बार कम से कम आइनें की तरह काम तो करती हैं भले ही आइनें का अपना एक गन्दा गाढा रंग क्यों ना हो... इसके अलावे पढी मैंने पाउलो कोएलो की अल्केमिस्ट, चेतन भगत की one night @ call centre, राही मासूम रजा की 'नीम का पेड़' और विष्णू प्रभाकर की रचना " अर्धनारीश्वर".. काफी थक गया हूँ, कल फिर share करूंगा १२:१२ am हो रहे हैं....जी शुभ रात्रि ..

ये ब्लोगिंग में लाठी-बल्लम...?


ये इतना घमासान क्यूँ....? किसको साबित करना चाहते हैं..? किसके  बरक्श....? ये कौनसी मिसाल आप सब बना रहे हैं..? सब, सब पर फिकरे कस रहे हैं. आये थे, कुछ बांटने, ब्लॉग लिखने, कुछ सीखने, कुछ बताने,...., ये क्या करने लगे...? ये बार-बार ब्लोगिंग को गोधरा बनाने पर क्यूँ आमादा हैं, कुछ लोग. कोई ऐसी तो नयी बात नहीं कह रहे...धर्मों से जुड़ी ऐसी घृणित बातें तो पहले भी विकृत मन वाले कह गए हैं, इसमे इतना श्रम क्यूँ लगा रहे हैं...शर्म नहीं आती जब एक ब्लॉगर अपनी प्रोफाइल ही डीलीट कर लेता है. सबसे आधुनिक माने जाने वाले माध्यम पर भी आखिरकार हम एक डेमोक्रेटिक स्पेस नहीं ही रच पाए. क्या कहेगा कोई, "ये हिन्दी वाले....".  मैंने देखा है, ज्यादातर ब्लॉगर खासा अनुभवी हैं, जीवन-व्यापार का उन्हें खासा अनुभव है, उम्रदराज भी हैं, पर टिप्पणी पर टिप्पणी बस दिए जा रहे हैं. आप युद्ध नहीं कर सकते यहाँ, उसके लिए, शायद हमने गली,कूंचे,मोहल्ले, सड़क और सीमायें बनायीं है..मन नहीं भरा..यार ब्लोगिंग वाला स्पेस तो बस बहस के लिए रहने दो. गाली-गलौज के लिए जगहों की कमी है क्या..?

आस्था को दिल की प्यारी सी कोठरी में संजों कर रखिये, इसे बाजार में लांच करने की कोशिश इसे शर्मसार करेगी और कर रही है. आप किसी का भला नहीं कर रहे हैं. एक लेख लिखने में खासा थक जाता हूँ मै, टाइपिंग की ऐसी कोई स्पीड नहीं, पर कुछ लोग इतना श्रम महज किसी 'उन्माद' के लिए कर जाते हैं..हिन्दी ब्लोगिंग कमोबेश एक परिवार की तरह है, हम लोगों के सुख-दुःख में भी शामिल होते हैं, मौज में भी और थोड़ी मीठी-मीठी खिचाईं भी कर लेते हैं. पर यहाँ तो लाठी बल्लम चल रहे हैं. और हाँ इस लाठी की चोट ठीक नहीं होती, विष बन जाती है. एक सामान्य ब्लॉगर भी थोड़े ही दिनों में विषवमन करने लग जाते हैं. कुछ ब्लागरों की भाषा पढ़कर तो शर्म आती है. धर्म के नाम पर ऐसे लोग जिस बेहया भाषा का प्रयोग कर रहे हैं उनसे कहना चाहूँगा कि यकीन मानिये कि उस 'लिखे' को आपका कोई भी टीचर जिसने आपको कभी भी एक हर्फ़ भी सीखाया होगा; पढ़ेगा तो आपको उम्दा झापड़ रसीद करेगा. वो शर्मिंदा होगा अपनी इस फसल पर जो बस खर-पतवार बन कर रह गयी है.


इस हिन्दी ब्लॉग जगत की कुछ खास बातें है. इसमें हर उम्र, हर धर्म, हर भाषा भी, और हर पेशे के लोग हैं. सीखना हो तो सीखने के लिए मुक्त होकर इससे अच्छी जगह नहीं मिलेगी. कहते हैं कि लाख रुपये देकर भी एक अनुभव सीख लो. यहाँ वैसे ही यह गंगा निर्झर बह रही है. एक प्यारा सा परिवार बन पड़ा है इस अंतर्जालिक फैब्रिक को सम्हाल लो, एक नया ब्लॉगर आयेगा तो उसे हम क्या मिसाल देने जा रहे है, उसे ये जगह एक भावनाओं का मंदिर लगे, आत्मविश्वास का गुरुद्वारा, वाद-विमर्श की मस्जिद और संबल और स्नेह का चर्च लगे, इसे पीकदान ना बनने दीजिये. मेरी वरिष्ठ और चर्चित ब्लागरों से सदाग्रह है कि मौन ना रहे, पहल करें, इसकी भर्त्सना करें, वरना ब्लॉग्गिंग किसी और कुत्सित शब्द का समानार्थी हो जायेगा, यकीन मानिए..

चित्र साभार: गूगल .

ek naya template

थोड़ी मेहनत की, एक नया टेम्पलेट

गाँधी मेरी नजरों से..


गाँधी जी जैसा रीयल परसन अपने जन्मदिन पर आपको निष्क्रिय कैसे रहने दे सकता है..जितना पढ़्ता जाता हूँ गाँधी जी को उतना ही प्रभावित होता जाता हूँ. गाँधी और मै. मेरे लिये गाँधी जी सम्भवत: सबसे पहले सामने आये दो माध्यमों सेपहला -रूपये की नोट सेदूसरा एक लोकप्रिय भजन- रघुपति राघव राजाराम...फिर पता चला इन्हें बापू भी कहते हैंमोहन भीइन्होने आज़ादी दिलवाई और सत्यअहिंसा का पाठ पढ़ाया. बापू की लाठी और चश्मा एक बिम्ब बनाते रहे. इसमे चरखा बाद में जुड़ गया.पहले जाना कि यह भी एक महापुरूष हैबाकि कई महापुरुषों की तरह. और तो ये उनमे कमजोर ही दिखते हैं. सदा सच बोलते हैं और हाँ पढ़ाई में कोई तीस मारखां नहीं थे. ये बात बहुत राहत पहुँचाती थी. पहला महापुरुष जो संकोची थाअध्ययन में सामान्य था. मतलब ये कि --बचपन में सोचता था --ओह तोमहापुरुष बना जा सकता हैकोई राम या कृष्णजी की तरहपूत के पांव पालने में ही नहीं दिखाने हैं. फिर गाँधी जी का 'हरिश्चंद्र नाटकवाला प्रकरण और फिर उनकी आत्मकथा का पढ़ना.. मोहनदास का झूठ बोलनापिताजी से पत्र लिखकर क्षमा याचना करना. पिता-पुत्र की आँखों से झर-झर मोतियों का झरना. ...प्रसंग अनगिन जाने फिर तो..पर एक खास बात होती गयी. गाँधी जी को जानो तो वो भीतर उतरते जाते हैंउतने ही प्राप्य, tangible हो जाते हैं.

किशोरावस्था में गाँधी जी का मतलब ये हो गया था-'-कोई एक गाल पे झापड़ दे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो...
गांधीजी कायर थे और जाने क्या-क्या सुनाउन लोगों के मुँह से जिन्होंने कभी नवजीवन प्रकाशन से छपने वाली २० रूपये वाली बापू की ''सत्य के प्रयोग'' तक नहीं पढ़ी.

आज गाँधी एक सॉफ्टवेयर जैसे लगते हैंजिसमे जैसे जिन्दगी की हर फाईल खुल जाती होसारे वाद-विमर्शों की वीडियो चल जाती हो..हम गाँधी को आजमाते जाते हैं और उनकी प्रासंगिकता पर बहस करते जाते हैं. महामना गाँधी जी की सबसे बड़ी खासियत यही थी कि उन्होने सबके सामने एक आदर्श रखाएक ऐसा आदर्श जो सबके सामने ही प्रयोग करते हुएगलतियाँ सुधारते हुएव्रत-उपवासअनशनयात्रा आदि-आदि करते हुए रचा गयाएक ऐसा आदर्श जो सामान्य मानव मन के लिए अनुकरणीय था.

गाँधी ने सबकोसबके भीतर के गाँधी से मिलवाने की मुहिम चलायी और सफल रहे. गाँधी पर विचार करते हुए किसी प्रकार का एकेडेमिक तनाव नहीं होताक्योंकि गाँधी केवल किताबों में नहीं हैंभाषणों में ही नहीं हैं या फिर विभिन्न आलेखों में ही नहीं हैं. हम गाँधी को अपने किचेन में भी पाते हैं और  अपने बाथरूम में भी गाँधी हमें हाइजीन का पाठ पढाते मिल जाते हैं. दिन की शुरुआत में गाँधी प्रार्थना की शक्ति समझा रहे होते हैंतो रात में 'आत्म-निरीक्षणकी आदत डलवा रहे होते हैं. हो सकता हैगाँधी आपसे नमक का कानून तोड़ने के लिए कह रहे हों और पेट दुखने पर मिटटी का लेप भी स्वयं ही लगा रहे हों. गाँधीइरविन से भी बात कर लेते हैंऔर आपके दादादादीपापामम्मीभाईबहन से भी बात कर लेते हैं. गाँधीवकील को भी समझा रहे होते हैंअध्यापक को भी पढ़ा रहे होते हैं और डॉक्टर को भी हिदायतें दे रहे होते हैं. गाँधी हर जगह मुस्कुरा रहे होते हैं और अपनी स्वीकार्यता सरलता से बना लेते हैं.

गाँधी वहां भी धैर्यवान और शांत हैंजहाँ वे प्रयोग कर रहे हैं या गलतियाँ कर रहे हैं. सब आपके सामने है. गाँधी एक साथ उत्कट हैं और विनम्र हैं. गाँधी लैटिन भाषा का एक्जाम देते हैंआंग्लभाषा में बैरिस्टरी करते हैंपर ठीक सौ साल पहले  'हिंद स्वराजलिखते हैं तो गुजराती  में लिखते हैं. और हाँ, 'हिंद स्वराजमें कोई भाषण या कठिन निबंध नहीं लिखते वरन सामान्य जनों के प्रश्नों का सरल व व्यापक सम्पादकीय उत्तर दे रहे होते हैं.

गाँधी एक साथ संकोची व परम निडर हैं. वो मान लेते हैं कि वे डरपोक हैंफिरोजशाह मेहता की तरह जिरह नहीं कर सकतेपर अफ्रीका में अपनी पगड़ी नहीं उतारतेमोहनदास . मोहन से महात्मा बनने की यात्रा एक क्रमिक सुधारयात्रा  हैसाधारण के असाधारण बन जाने की महागाथा हैजिसका साक्षी हिन्दुस्तान का आख़िरी व्यक्ति है.

मुझे सबसे ज्यादा पसंद हैगाँधी जी का प्रयोगधर्मी होना. जीवन-व्यापर में ऐसी कोई चीज नहीं जिस पर गाँधी प्रयोग करते ना दिख जाते हों. वो आपको मालिश करना सिखा सकते हैबाल काटना बता सकते हैं. अंतःकरण शुद्धि की विधियां बता सकते हैं और तिलहन की फायदेमंद खेती कैसे करेंयह भी बता सकते हैं. गाँधी बच्चों से ठिठोली कर सकते हैं. नोआखाली में उन्माद से जूझ सकते हैं. गाँधी आपको सरल ह्रदय वाला बना सकते हैंजिसमे जरा भी घमंड व कर्त्ताभाव ना होजब वो कहते है कि सबसे गरीब व कमजोर व्यक्ति का स्मरण करो और सोचो कि तुम्हारे इस कदम से उसे क्या फायदा होने वाला है. आपको अपनी लघुता और उपयोगिता दोनों का पता तुंरत ही लगता है.

महामना गाँधी अपना सारा मोह छोड़ सकते हैं. चाहे वो खाने का होचाहे वो सेक्स का होचाहे वो कपड़ों का हो ...आदि-आदि. गाँधीशिक्षा के लिए अपना घर बार छोड़ सकते हैंअपना समाज छोड़ सकते हैं. गाँधी पहला गिरमिटिया बन सकते हैं. गाँधी बाइबिल पढ़ सकते हैं और गीता भीकुरान भी और जेंद अवेस्ता भी. उनके लिए कुछ भी अनछुआ  नहीं है. वो सबके हैं और सब उनके. गाँधी के लिए गैर तो अंग्रेज भी नहीं. उन्हें वेस्ट कल्चर से नहींअंधी आधुनिकता से ऐतराज था. उन्हें मशीन से नहीं पर मैकेनाइजेशन से चिढ़ थी.


......ग्लेशियर पिघलने लगे हैं, धरती गरम हो गयी है, मानवी उन्माद नए चरम पर हैं, तो अब कब सुनोगे बापू को.....बोलो...?

गाँधी थकते नहींचलते जाते हैं. जीवन-पर्यंत चलते जाते हैं. भारत का पहला mass-mobilisation का श्रेय उन्हें प्राप्त है. पहले democratic leader हैं वो क्योकि उनकी अपील common man के लिए थी. उनका उपवासगरीब का भी उपवास था और टाटा-बिड़ला का भी उपवास था. हम गाँधी को प्यार करने लग जाते हैं क्योकि वो अपनी गलतियाँ बताते हुएकमियां जग-जाहिर करते हुए आगेएकदम आगे बढ़ते जाते हैं. गाँधी उन्ही क्षणों में सचेत हैंकि उनको स्वयं का अन्धानुकरण नहीं करवाना है. गांधीवाद जैसी कोई चीज नहीं पनपने देनी है. उन्हें चमत्कार नहीं बनना है..वे आचरण में श्रम की प्रतिष्ठा कर जाते हैं. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने  जिन भारतीयों को धीमी रेलगाड़ी का डिब्बा कहा हैउनके सामने युगपुरुष गाँधी एक नियमित,अनुशाषितसयंमित व सक्रिय दिनचर्या का आदर्श रखते हैं.


गाँधी हर पत्र का उत्तर लिखना नहीं भूलतेकागजों के रद्दी से आलपिनों का चुनना नहीं भूलते. अपने साप्ताहिकमासिक पत्रों में किसी भी तरह के मुद्दे को छेड़ना नहीं भूलते. गाँधी नहीं भूलते कुछ भी पर हम भूल जाते हैं सब कुछ. आखिर हमने गाँधी को सिम्बल बना लिया है. टाँक लिया है अपने राष्ट्रिय जीवन पर. गांधीवाद के बाकायदा संसथान बना लिए हैंजहाँ से खादी तैयार होती है और संसद में शोरगुल मचाती है कि नोट की गड्डी अन्दर कैसे आयीकौन लायाकिसके लिए..लाया....?...? उन संस्थानों में चरखा चलता रहता हैखादी की नयी खेप आती रहती  हैशोरगुल मचाने के लिए...

गाँधी अनवरत जिन्दा रहेंगेउनकी प्रार्थना अमर रहेगीकिसी भ्रमित की गोली उन्हें नहीं रोक सकेगी कभी भीक्योंकि उन्होने अपनी जगह आसमान या धरती पर नहीं बनाई थीदीवारों या नोटों पर नहीं बनाई थीउन्होने बनाई थी अपनी जगह समाज के अंतिम आदमी के दिल में..तो वो सदा-सर्वदा मुस्कुराते रहेंगेकेमिकल लोचा करते रहेंगे..उनकी प्रासंगिकता की बार-बार होने वाली बहस भी बेमानी हैक्योंकि वो जीवन-व्यापार से कभी अनुपस्थित ही नहीं होते...हम भ्रमितश्रांत उन्हें खोज नहीं पाते और बहस करने लगते हैं प्रासंगिकता की..
..देर नहीं करनी चाहिए...अब हमें अपने भीतर के गाँधी को पुकारना चाहिए और महामना की आवाज को सुनना चाहिए....ग्लेशियर पिघलने लगे हैंधरती गरम हो गयी हैमानवी उन्माद नए चरम पर हैंतो अब कब सुनोगे बापू को.....बोलो...?                                                                 (श्रीश पाठक 'प्रखर')


(चित्र साभार: गूगल इमेज )

कल दिन भर एक कहानी में


कल रात लिख नहीं पाया. दर असल कल दिन भर एक कहानी में लगा रहा. कहानी तो एक घंटे में ही पूरी हो गयी थी पर दिन भर उसकी खुमारी में रहा. स्वयं क्या मूल्यांकन कर सकूंगा उस कहानी का पर फिर भी पहली बार मै कहानी पूरी कर पाया. कई बार मैंने कई कहानी शुरू किये लिखना, पर एक-दो पेज के बाद लगता, कि जिस टोपिक के  टारगेट को हिट करना चाह रहा हूँ, उसके लिए जरूरी अनुभव मिस कर रहा हूँ और कहानी अधूरी रह जाती. पहली बार बस बैठा, और एक रौ में लिख डाला.
जाने कैसा लिखा, पर मेरे लिए ये महत्वपूर्ण है कि मै कोई कहानी पूरी कर सका, पहली बार. क्योंकि कहानी लिखना मुझे बहुत टफ लगता है. कविता अपने शिल्प के दरम्यान आपको मौका देती है कि आप पाठक के लिए खुद ही वातावरण सृजित करने दे, किन्तु कहानी में माहौल आपको ही निर्मित करना होता है. यहाँ तक कि पात्रों के नामों का चयन भी महत्वपूर्ण हो जाता है. ऐसा नहीं एक जैसी-तैसी कहानी लिख लेने के बाद मै कहानी लिखने की सैद्धांतिक विधि व मर्यादाएं निर्धारित करना चाह रहा हूँ, दर असल ये चुनौतियाँ मुझे आती हैं, जब भी मै कहानी लिखना चाहता हूँ.
मैंने कल जो कहानी लिखी, उसका शीर्षक रखा 'उन्माद की उड़न तश्तरी'. इसके दो पात्र हैं एक स्वयं प्रेम दूसरे उन्माद . आधुनिक युग के सत्यों से अनगिन साक्षात्कारों के बाद प्रेम अपने अस्तित्व के लिए उन्माद से प्यार करना चाहता है, किन्तु उन्माद को   बहुत ही अगम व छोर का यायावर पाता है जो तनिक भी भावनाओं की गहराइयों से प्रेम नहीं करता.

सोचा था, कहानी ब्लॉग पर डाल दूंगा. पर मेरे अनन्य मित्र जिन्होंने इस कहानी की अविश्वसनीय प्रशंशा की उन्होंने कहा , ब्लॉग पर कुछ टिप्पणियां मिलेंगी महज, जिसमे से आधी कुशल-क्षेम, शुभकामनायें वाली होंगी, शायद ही कोई टिपण्णी , कहानी पर चर्चा करते हुए, आलोचना करते हुए अथवा सम्यक प्रशंशा करते हुए आये..यहाँ तक कि ब्लॉग-जगत के धुरंधर, वरिष्ठ जनों की भी टिप्पणियां करीब-करीब औपचारिक ही होती हैं. ऐसा मै अपने (http://shreeshuvach.blogspot.com/) के अनुभव से कह सकता हूँ. सो अब कहानी को अलमीरा में रख दिया है, जैसी इसकी किस्मत . किस्मत इसलिए कह रहा हूँ, क्योकि ब्लॉग-अनुभव से ही जानता हूँ कि आप हैरान हो जाते हैं टिप्पणियों की आवक देख कर ....जिस पोस्ट पर बड़ी उम्मीद , उस पर बड़ी कम टिप्पणियां, और जिस पर कम उम्मीद उस पर नज़ारे इनायत....ना जाने क्यों ऐसा होता है.......खैर फिर आऊंगा इस दैनन्दिनी पर .........आप सबको एक अछे दिन के लिए शुभ कामनाएं...... 

आधी रात हो चली है.

आधी रात हो चली है. दिल्ली में झमा-झम बारिश हो रही है. काश के ये बारीश जुलाई-अगस्त में हुई होती तो मेरे पापाजी को कड़ी धूप में खेतों में पानी ना चलवाना पड़ा होता.उनकी तबियत ख़राब हुई सो अलग.JNU के इस ब्रह्मपुत्र हॉस्टल में बैठा-बैठा मै कई बार ये सोच रहा था कि आज का अजीब दिन है.भगदड़ से ५ छोटी लड़कियां मर गयीं तो कैम्पस में भी एक स्टुडेंट ने उचित हैल्थ फसिलिटी के अभाव में दम तोड़ दिया. पूरे दिन कई बातें सोचता रहा. मसलन , अब कुछ नौकरी-वौकरी के बारे में सोचना पड़ेगा.आस-पड़ोस में लड़के सारे काबिल निकल रहे है एक मै हूँ कि पढ़ाई बढ़ती ही जा रही है. एम.फिल. करके JNU से सोचा था कि किसी ना किसी काम का तो होई जाऊंगा...पर एकदम से ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा. इस प्रसिद्द कैम्पस का भी एक मिथक जैसा कलेवर बन पड़ा था,,टूटा. वैसे ढेर सारी खास बातें है इस कैम्पस में पर धीरे - धीरे यहाँ भी अनचाही तब्दीलियाँ आती जा रही हैं, इसका सबसे प्रमुख कारण है नयी आने वाली फैकल्टी में आचार्यत्व का अभाव. वजह...बेहद फोर्मल के कलेवर में होने वाली अपारदर्शी चयन प्रक्रिया.अब यहाँ भी भाई-भतीजावाद दिख जायेगा और देश की कलुषित राजनीति का असर भी. खैर...फिर भी अपना JNU बहुत ही अच्छा है, जब मै बाकि परिसरों के बारे में सोचता हूँ. थोडी बहुत पढ़ाई की मैंने .पर जाने आज क्यों कुछ परेशां सा रहा...शायद इसलिए कि अपनी किसी भी योजना में आज मन नहीं लगा. आगे प्रयास समुचित प्रयास करूंगा कि समय का बेहतर प्रयोग कर सकूं.

Diary

The life of every man is a diary in which he means to write one story, and writes another; and his humblest hour is when he compares the volume as it is with what he vowed to make it



James Matthew Barrie

ये मेरी 'प्रखर दैनन्दिनी

जब पहली बार ब्लॉग का कांसेप्ट सुना था तो मन में बात यही बनी थी की यह एक ऑनलाइन डायरी है, पर ब्लॉग बनाया तो सारी लेखनी उड़ेलने का मन हुआ और लिखा हुआ सब कुछ ब्लॉग पर आ गया....आज मन में आया क्यों ना एक डायरी बना ही ली जाये .....रोज का रोज तो लिखना संभव नहीं है पर कोशिश करूँगा लिखने की....और रोजमर्रा का व्यौरा नहीं निमित्त है लिखना पर जो विचार अठखेलियाँ कर जाते हैं उनकी कुछ प्रतिध्वनियाँ अंकित करने की चाहत है ये मेरी 'प्रखर दैनन्दिनी'...