"सर्वत्र" से संवाद



JNU में राजनीतिक जागरूकता जबरदस्त है, ऐसा शायद ही भारत में किसी और कैम्पस में हो...तो इसमे खास बात क्या है..? खास ये है कि यहाँ आपको अपने व्यक्तिगत राजनीतिक अधिकारों के लिए जरूरी नहीं कि आप किसी खास ग्रुप से हों, परंपरा से यह विकसित हो गया है और मै इसे करीब से देख रहा हूँ. पर एक दूसरी बात जो मुझे बेहद पीड़ा पहुँचती है वो ये कि जो छात्र-संगठन यहाँ राजनीति करते हैं वो अक्सर असली मुद्दों को गड्ड--मड्ड कर देते हैं ठीक राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की तरह. कैम्पस अंतर्राष्ट्रीय मामलों की तरफ बहुत संवेदनशील है (कम से कम चर्चा,पम्फलेट के स्तर पर), पर कई बार स्थानीय व राष्ट्रिय मुद्दे दरकिनार कर देते हैं. इसी प्रवृत्ति पर चुटकी लेते हुए, मेरे एक मित्र ने कहा कि- " people who are talking about America they don't know what is happening in Munirika.." मुनिरिका, JNU के पास की एक मार्केट है. खैर; अब पाउलो कोएलो की बात करते हैं. अल्केमिस्ट की कहानी कुल पांच से छः पेज में आ सकती है. पर कहानी कहना ही उद्देश्य नहीं लेखक का. लेखक को पाठक से आत्मिक संवाद करना है. ALCHEMIST--पूरी पुस्तक बोल के पढ़ा, क्योंकि पुस्तक बिलकुल पोएटिक थी. एलन क्लर्क ने क्या उम्दा इंग्लिश अनुवाद किया है, मूल पुस्तक पुर्तगीज में है, कुल ६२ भाषाओँ में अनुवाद हुए है इसके--गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में शामिल...हाँ तो बोल के पढ़ा एक-एक शब्द. जाने- अनजाने कोई गाढ़ी बात निकल के आ जाती थी..और विचारों के ये सुन्दर मोती हर एक या दो पैराग्राफ में ही मिलते रहते हैं. essence है अल्केमिस्ट का; कि-- "लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रक्रिया, लक्ष्य से ज्यादा महत्पूर्ण है..(कर्मण्ये वाधिकारस्ते.....); क्योंकि मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते आप वो नहीं रह जाते हैं जो रास्ते की शुरूआत में होते हो; तो फिर लक्ष्य बौना हो जाता है, आप बड़े हो जाते हो..." एक गहरा रूपांतरण घट चूका होता है..अल्केमिस्ट इशारा करती है कि 'जड़, चेतन से वैसे भिन्न नहीं है, जैसे आज समझा जाता है, प्रकृति तो जड़ कत्तई नहीं है. व्यक्ति को "सर्वत्र" से संवाद करना सीखना चाहिए.प्रकृति से भी और अपने अंतरतम से भी. मुझे अल्केमिस्ट बेहद पसंद आयी. शायद हर उत्साही के पास यह पुस्तक होनी चाहिए. पाउलो कोएलो की टिपिकल शैली बहुत भायी, मुझे. वैसे कुछ प्रतीक, बिम्ब ले रखे हैं प्रचलित अंधविश्वासों से पर लेखक के लिए महज यह जरिए रहा है. ये किताब पढ़कर, मै सोचने लगा कि पुस्तकें मानव जीवन में कितनी बड़ी अविष्कार हैं. किसी खास चिंतन में कोई व्यक्ति जाने कितने उतार-चढाव के बाद किसी अनमोल बिंदु पर पहुंचता है, उन्हें पढ़कर हम सहसा वहां पहुच जाते हैं, अपनी-अपनी प्रज्ञा से हम विचार करते हैं और उस दिशा में व्यक्तिगत प्रगति करते हैं. मुझे अर्जेन्टिनी लेखक बोर्खेज के शब्द याद आ रहे हैं.."पुस्तकें, सुख कैसे देती हैं, मै समझा नहीं सकता, पर मै कृतज्ञ हूँ, इस विनम्र चमत्कार के लिए.."


चित्र साभार:गूगल

8 comments:

Mishra Pankaj ने कहा…

श्रीश जी दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

दीपपर्व की अशेष शुभकामनाएँ।
आपकी लेखनी से साहित्य जगत जगमगाए।
लक्ष्मी जी आपका बैलेंस, मंहगाई की तरह रोड बढ़ाएँ।

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पर्यावरण और ब्लॉगिंग को भी सुरक्षित बनाएं।

अभिनव उपाध्याय ने कहा…

lagta hai mujhe bhi the alchemist padhni padegi. deepawali ki shubhkamana.

राजकुमार ग्वालानी ने कहा…

इस दीपावली में प्यार के ऐसे दीए जलाए

जिसमें सारे बैर-पूर्वाग्रह मिट जाए

हिन्दी ब्लाग जगत इतना ऊपर जाए

सारी दुनिया उसके लिए छोटी पड़ जाए

चलो आज प्यार से जीने की कसम खाए

और सारे गिले-शिकवे भूल जाए

सभी को दीप पर्व की मीठी-मीठी बधाई

Prem ने कहा…

सर्वत्र सवांद पढ़ा ,अच्छा लगा ,मेरे ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद । दीपावली की आपको हार्दिक शुभकामनायें ।

Puja Upadhyay ने कहा…

अल्चेमिस्त मेरी पसंदीदा किताबों में से एक है...जेएनयू ही जा कर पहली बार मैंने पोस्टर से ढकी दीवारें देखी थीं...उनपर लिखे नारे देखकर यकीं नहीं हुआ था की आज भी लोग ऐसा सोचते हैं, पर पम्फ्लेट्स पढ़ कर और वहां के कुछ दोस्तों से बात करके लगा की कहीं न कहीं एक 'सोच' जिन्दा है कमसेकम.
आपकी डायरी बड़ी करीने से लिखी जा रही है, आपको पढना यूँ लगता है जैसे मेरी जेएनयू की यादों का एक झरोखा खुला हो.

अभिषेक आर्जव ने कहा…

बहुत सुन चुका हूँ इस किताब के बारे में ......इतना की लगता ही नही की नही पढा है ......खैर अब आप ने भी चर्चा कर दी तो एकदम ठीक से पद्गना जरूरी हो गया है .....

shama ने कहा…

Sabse pahle janam din kee badhayee ke liye shukriya kahungee..aalekh thod-sa padha,jise poora, aur itminan se padhne ka man hai...wo kal ho payega!

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