यूँ ही बस इधर-उधर विचरना मन का


डायरी के पन्नों में क्या कुछ आ जाता है..कई बार उसकी कोई खास वज़ह नहीं होती, यूँ ही बस इधर-उधर विचरना मन का...कोई सन्दर्भ- प्रसंग नहीं..बिलकुल ही उन्मुक्त....उनमे से कुछ आपके समक्ष...

किस्मत से मै भिखारी हूँ 
और किस्मत से ही मुझे 
भीख मिलती है. वरना 
'आगे बढ़ो' की सीख मिलती है..!!!








सिद्धांत एक ऐसा पुरुष है, जिसे कभी भी एक पतिव्रता नहीं मिलती..!!!


 "जान लेकर करता है 
खामोशी की शिकायत 
दर्द की बात लिखता है 
दर्द देने वाला.."


४.  "ख़ता तब से शुरू हो गयी बेइंतिहा  
    आजमाना जबसे जनाब ने शुरू किया.."


देखें; 'श्रीश उवाच' पर- कि;

चित्र साभार:गूगल 

यदि हर राज्य की शिक्षा प्रणाली में एक स्तर पर मौलिक समानता होती..कई जरूरी विभिन्नताओं के साथ तो...

आज सोचा कुछ कैम्पस-चर्चा हो जाए. JNU की प्रवेश परीक्षा प्रणाली बड़ी अलहदा है. लगभग हर स्कूल के हर सेंटर की थोड़ी अलग-अलग. देश भर में और कुछ देश से बाहर भी इसके सेंटर बनाये गए हैं जहाँ प्रवेश परीक्षाएं एक साथ एक ही समय में लीं जाती हैं. एक खास आकर्षक अनुशासन के साथ यह परीक्षाएं संपन्न हो जाती हैं. अगले दो से तीन महीनों में परिणाम आ जाता है. साक्षात्कार होता है और उत्तीर्ण अभ्यर्थी चयनित हो जाता है. यह विवरण देना मेरा मंतव्य नहीं. मै तो इसके आगे की कहना चाहता हूँ. विद्यार्थी आता है. एक नया और जोशीला माहौल मिलता है. धीरे-धीरे वो यहाँ रमने लग जाता है. छोटी-मोटी परेशानियाँ आती हैं, विद्यार्थी जूझता है, इस दरम्यां कुछ बेहतरीन चीजें वो सीख लेता है. एक बात तो तय ढंग से कही जा सकती है कि कुछ समय बाद वह वैसा नहीं रह जाता, जैसा कि वह प्रवेश के समय में होता है. मानसिक आयामों  में वृद्धि तो होती ही है वरन अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि भोजन व दिनचर्या की संगतता के कारण शारीरिक विन्यास भी खिल उठता है. अचानक से ही उसकी रोजाना की चर्चाएँ क्षेत्रीय से राष्ट्रीय होते-होते अंतर्राष्ट्रीय होने लग जाती हैं. कई बेहतरीन सामग्रियां , जर्नल्स, मैगजीन, विश्वस्तरीय फिल्में और सेमिनारों से उसकी अंतर्क्रिया होती है. और सबसे बढ़कर यहाँ का अनौपचारिक माहौल. पर कुछ बातें खटकती भी हैं. जैसे यहाँ की दाखिला-प्रक्रिया. चयन के बाद admission की इतनी लम्बी प्रक्रिया कि दो-तीन दिन से हफ्ते तक तो लग ही जाते हैं. बहुत सारा कागज..और ढेरों लिखने की प्रक्रिया. और सेमेस्टर सिस्टम होने की वज़ह से यह प्रक्रिया हर छह महीने पर दुहराई जाती है. मुझे नहीं लगता इतने जागरूक कैम्पस में यह भारी -भरकम प्रक्रिया जिसमे अत्यधिक समय, अत्यधिक कागज और अत्यधिक विभागीय दौड़ा-भागी होती है; कहीं से भी सुसंगत है. राहत की दो बातें हैं--यहाँ का कर्मचारी स्टाफ बहुत ही सहयोगी और मृदुभाषी है और सीनियर  विद्यार्थी स्वप्रेरणा से सहयोग के लिए प्रस्तुत रहते हैं.


दूसरी महत्वपूर्ण बात जो मै कहना चाहता हूँ वो हिंदी भाषा-क्षेत्र से आने वाले विद्यार्थियों के सन्दर्भ में है. मीडियम आंग्लभाषा है पठन-पाठन की; तो अचानक से उन्हें सबकुछ सीख लेना होता है. उनकी प्रतियोगिता उन्हीं लोगों से होती है जो english background से होते हैं. भारत में हर राज्य की शिक्षा प्रणाली अलग-अलग है. उत्तर-प्रदेश में, जहाँ अभी हाल तक A B C D कक्षा- छह से पढाई जाती रही है. और बाकि कई दूसरे राज्य जहाँ अंग्रेजी, प्राम्भिक स्तर से ही पढाई जाती है. यह विभेद शिक्षा के उच्च स्तर पर आकर खासा निर्णायक हो जाता है. सिलेबस का दबाव इतना कि इतना समय नहीं कि इस विभेद को पाटने की कवायद भी की जाए. वैसे कैम्पस में एक रीमीडिएल कोर्स चलता है अनौपचारिक रूप से पर वह ना तो पर्याप्त ही है और ना ही उसका संतोषजनक स्तर ही है. मै थोड़ा भाग्यशाली रहा हूँ कि इंग्लिश में हाथ उतना तंग नहीं है पर मैं देखता हूँ कि पहले सेमेस्टर में कुछ बंधुओं का क्या हाल होता है. JNU में प्रवेश की खुशी फुर्र से उड़ जाती है और सांस थामकर चीजें जल्द से जल्द सींख लेनी होती हैं.
मेरा मंतव्य किसी को दोष देना नहीं है. यह समस्या नहीं होती यदि हर राज्य की शिक्षा प्रणाली में एक स्तर पर मौलिक समानता होती..कई जरूरी विभिन्नताओं के साथ. विद्यार्थियों में प्रतिभा की कमी नहीं है, उनके प्रयत्नों को भी कम करके नहीं आँका जा सकता पर जो मानसिक तनाव उन्हें झेलना पड़ता है वह कई बार उनके मनोबल को तोड़ देता है और अध्यापकगण सहानुभूति रखकर भी कुछ ख़ास सहायता नहीं कर पाते.
चित्र साभार:गूगल   

शब्द मेरी माँ जैसे हैं..

{आजकल खासा व्यस्त हूँ, और शायद आगे भी रहने वाला हूँ. चाहकर भी मित्रों की ब्लॉग-प्रविष्टियाँ पढ़ नहीं पा रहा हूँ. एहसास है कि क्या खो रहा हूँ...कुछ लिख भी नहीं पा रहा हूँ. पर जल्दी ही सबकुछ व्यवस्थित करने की कोशिश करूँगा. Ph.D. की synopsis का ड्राफ्ट तैयार 
करते हुए एक छोटी सी कविता सूझ गयी तो जल्दी में इसे आप सभी के समक्ष रख रहा हूँ... }



एक अध्यापक कहते हैं; 


'शब्दों' के एक अपने  
निश्चित अर्थ होते ही हैं, और  
उनका एक निश्चित प्रभाव होता ही है...|  


पर, एक वक्ता कहता है;  


'शब्दों' का अपना अर्थ  
इतना महत्व नहीं रखता, 
वक्ता उसमे मनचाहा  
अर्थ डाल देता है...  


सोचता हूँ; शब्द मेरी माँ, जैसे हैं..  


उनका हमेशा एक निश्चित  
मंतव्य होता है, जब वो हाथ लगा, 
सहलाते हुए समझाती हैं, पर मै... 
उन मर्यादाओं में मनचाही  
उच्छृंखलताएँ कर ही  
लिया करता हूँ...|  


यकीनन, शब्द मेरी माँ जैसे हैं...!!!  


(चित्र साभार: गूगल)