चीनी खाने और गन्ना बोकर, चूसने में अंतर है, नायपाल जी.


जे.एन. यू में मेरी पहली anchoring जबरदस्त सराही गयी, माँ शारदा को प्रणाम. प्रो. घोष की रसिकता पर मैंने यूं चुटकी ली : "..बदन होता है, बूढा, दिल की फितरत कब बदलती है, पुराना कूकर क्या सीटी बजाना छोड़ देता है....." (संपत सरल) खूब compliments मिले. मुझसे जुड़े सभी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष को मेरा नमन, धन्यवाद. मुझे जो एक तरह की cultural भूख लगती रहती है, इसने संतृप्त किया. निष्क्रिय नहीं रहा इन दिनों. Research, Blogging आदि में उलझा रहा और बाकि समयों में newspaper और magazines ब्लोगिंग में कुछ लोग बड़े ही अच्छे मिले हैं, सीखने के लिए बहुत कुछ, वाकई...इधर साहित्यिक किताबें भी खूब पढी. अभी कुछ देर पहले ख़त्म की, वी. यस. नायपाल की 'A Wounded Civilization'. मानता हूँ, कुछ देर बाद यह पुस्तक मेरे लिए सहनीय नहीं रही. किसी देश को महज कुछ यात्राओं से कैसे जाना जा सकता है..? सर नायपाल ने कुछ मनपसंद किताबें चुनीं भारतीय लेखकों की, जिनमे उन्हें दोमुहें तर्क मिले; गांधी का व्यक्तिगत जीवन व सार्वजनिक जीवन चुना ( मानो, गांधी की गलतियाँ, भारत की गलतियाँ हों...) और कुछ विशेष मानक प्रश्न, टैक्सी-ड्राइवर, अनपढ़ गांव के सरपंच, स्वयं-घोषित कुछ आधुनिक औरतों से पूछ कर नायपाल ने भारत को एक आहत सभ्यता कह दिया. वैसे पुस्तक १९७५-७६ में लिखी गयी. भारत की आलोचना का इससे सुन्दर समय क्या होगा--क्योंकि आपातकाल ही उन्हें भारत के सम्पूर्ण जटिल-सरल कलेवर की चाभी प्रतीत हुई. कम से कम गांधी का प्रभाव निर्णायक रूप से असफल रहा( कमोबेश राजनीतिक रूप में), यह उन दो-तीन सालों में संस्थात्मक-औपचारिक तरह से गोचर हो रहा था. जैसे नायपाल के भेष में चर्चिल ने अट्टहास किया हो, जो स्तब्ध हो, भारत में democracy की स्थापना पर खिल्ली उड़कर कि ये अभी टूटा नहीं , बटां नहीं, उधर की संस्थाओं से अपने मूलभूत अभिसमयों को भारतीय कैसे सींच पाने में सक्षम हो पा रहे थे आखिर...? आपातकाल ने मानो उसे मौका दिया हो अपना बड़प्पन साबित करने का...नायपाल ने भारत का वही इतिहास सोखा है जो त्रिनिदाद में पश्चिम ने उन्हें रटाया है. उनके लिए इतिहास, history है, जो हेरोडोटस से शुरू होता है. पश्चमी पानी में पनपे नायपाल भारत की ग्रामीण संस्कृति में महज गन्दगी ही निरख पाते हैं....पश्चिम की तराजू भी ले ली और बाँट भी वहीं से उठा लाये, और दूसरे पलड़े पर भारत के कछुए को तौल रहे हैं. उसकी मजबूत खाल पर खड़े हैं, जब ये नहीं टूट रही है तो इसे भारतीय कर्मकांड की मजबूत संकीर्ण परंपरा बता रहे हैं. भारत की विनम्रता, उसकी सकुचाहट को उसकी ऐतिहासिक कमजोरी बता दे रहे हैं. गांधी जी की आलोचना कर, कद तो बढ़ जायेगा पर उस कद की उम्र घट जायेगी. नायपाल लिखते हैं कि भारत विचारधारा से शून्य है. नायपाल उसी भट्टी के भाड़ हैं, जो असल में विचारधारा की शूरूआत, यूरोप के renaissance से मानता है. कहते हैं कि भारत एक राष्ट्र नहीं है..मुझे बताइए कि कितने ऐसे देशों को आप nation कहेंगे,जो एकदम से उन्ही वेस्टफालिया के सिद्धांतों के समरूप हों,---और ये अनिवार्यतः जरूरी ही क्यों है..? आप भारत में भारत खोजने आये थे कि यूरोप..? चीनी खाने और गन्ना बोकर, चूसने में अंतर है, नायपाल जी. ५० साल भी नहीं हुए थे तबतक(१९७५-७६) भारत को आजाद हुए और आप, भारत की मौलिक विकास-अविकास यात्रा की तुलना, पश्चिम के उन मानकों से करने लगे, जिन्हें उपजने में पश्चिम में सैकड़ों साल, बर्बर क्रांतियाँ, दमन आदि हुए. प्रत्येक देश की अलग प्रकृति, अलग साधन व अलग तरह के लक्ष्य होते हैं...और भारत यदि कमोबेश शांतिपूर्ण ढंग से विकसित होने में समय ले रहा है तो आपको आपत्ति क्यूं है...? आप कहते है; भारत के व्यक्ति में "immature ego" है. तो क्या यह खून में है...? खैर आपकी इस बात से आंशिक तौर पर सहमत हूँ, कि नक्सलवाद एक बौद्धिक त्रासदी थी और इसने भारत की एक पीढ़ी को लील लिया..,,...,, पर यह भी हमारे चेतना का एक अंग है..इसका अनुभव भी एक सामाजिक परिप्रेक्ष्य देता है. नायपाल जी मै समझता हूँ, भारत जैसे देशों को तर्कों से खारिज कर देने का भी एक सुख है, जो आपने इधर की कड़ी, उधर से जोड़कर ले लिया. ... मै सोचता हूँ कि किसी भी देश की सभ्यता को फूहड़, संकीर्ण कहना और कतिपय तर्कों व संयोगों से सिद्ध कर देना ही कौन सी सभ्यता है...? खैर ऐसी पुस्तकें एक बार कम से कम आइनें की तरह काम तो करती हैं भले ही आइनें का अपना एक गन्दा गाढा रंग क्यों ना हो... इसके अलावे पढी मैंने पाउलो कोएलो की अल्केमिस्ट, चेतन भगत की one night @ call centre, राही मासूम रजा की 'नीम का पेड़' और विष्णू प्रभाकर की रचना " अर्धनारीश्वर".. काफी थक गया हूँ, कल फिर share करूंगा १२:१२ am हो रहे हैं....जी शुभ रात्रि ..