साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता, जब भी होगा जोड़ेगा.

साहित्य शब्द कानों में पड़ते ही सहित वाला अर्थ दिमाग में आने लग जाता है. साहित्य में सहित का भाव है. कितना सटीक शब्द है. साहित्य शब्द में ही इसका उद्देश्य रोपित है. साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता, जब भी होगा जोड़ेगा. इतना हर लिखने वाले को स्पष्ट होना चाहिए. इसीलिये जरुरी नहीं हर लेखन साहित्य में शामिल हो. मेरी दिक्कत ये है कि कुछ लोग साहित्य मतलब महज कविता कहानी समझते हैं. और इसे भी वो 'सब कुछ समझ सकने के गुरुर के साथ' समझते हैं-मतलब ये कि उन्हें सही समझाना कठिन भी है. कविता मतलब भी वो कुछ यूँ समझते हैं कि एक लिखने की शैली जिसमें ख़ास रिदम और एक पैटर्न की पुनरावृत्ति होती है जिसकी विषयवस्तु अमूमन प्रकृति अथवा नारी की खूबसूरती होती है. कहानी मतलब भी कि एक नायक होगा..एक नायिका होगी. ज़माने से लड़ेंगे-भिड़ेंगे-फिर जीत ही जायेंगे. 

एक सीधी सी बात समझनी चाहिए कि किसी भी विषय-विशेष में उतनी ही गहराई और आयाम होते हैं जितनी कि ज़िंदगी की जटिलताएं गहरी होती हैं. इस तरह कोई भी विषय विशेष का महत्त्व किसी भी के सापेक्ष कमतर या अधिकतर नहीं होता. मुझे क्या फर्क पड़ता है कोई चीज कोई ठीक से समझे या ना समझे..वैसे भी ये तो सदा से रहा हैं, कुछ लोग ही सम्यक बोध रखते रहे हैं. और मै कौन -मुझे भी कितना कुछ का कितना सम्यक बोध होगा...रब ही मालिक है. दरअसल दो ही दिक्कत है मुझे. पहला तो आग्रही अबोध अक्सर सत्यान्वेषी के लिए रोड़ा बन जाता है दूसरा ज्ञान का प्रसार समाज का समावेशी विकास करता है- तो यह प्रक्रिया भी अवरुद्ध हो जाती है. मुझे साहित्य एक जादुई चीज लगती है क्योंकि यह भाषा की महत्ता को एक नया आयाम देती है. अभिव्यक्ति की सहूलियत जो हमने भाषा का आविष्कार कर अर्जित की है, साहित्य के माध्यम से हम मानव मन, समाज-देश एवं संबंधों की जटिलताओं को भी सटीक व्यक्त कर पाते हैं. यह इतना आसान नहीं होता. साहित्य इस प्रक्रिया को सुगम्य बनाता है. परस्पर विरोधी भावनाओं को उकेरना हो, जटिलताओं को पिरो पाठक के समक्ष शिद्दत से पेश करना हो और समय एवं स्थान की मर्यादा सुरक्षित रखनी हो तो केवल साहित्य की अन्यान्य विधाएं ही यह कर सकती हैं. 


(चित्र साभार: गूगल इमेज )

हम ईर्ष्यालु भी हैं और प्रेमातुर भी. जिम्मेदार भी और लापरवाह भी. राष्ट्रीय हैं हम और क्षेत्रीय भी. क्षण क्षण हम अनगिनत विमाओं पर सवार हो जाते हैं. इस यथार्थ को कैसे दर्ज करेंगे...किस परखनली या बीकर में सुरक्षित रख पाएंगे इसे. इसे बस साहित्य ही समाहित कर सकेगा. हुए दंगे, वज़ह राजनीतिक रही होगी, प्रशासनिक क्षमता असफल हुई होगी, तकनीकियां दंगों को रोकने से ज्यादा फ़ैलाने में प्रयुक्त हुई होंगी, इतिहासकार, अतीत से वर्तमान की तुलना कर सके होंगे जबकि दंगे जारी होंगे, वैज्ञानिक, इंजीनियर, अध्यापक डॉक्टर कुंठित हुए होंगे..सुविधानुसार दोषारोपण किया होगा, पर दंगों में मानव मन ने क्या महसूस किया, कैसे दंगे अपने उन्माद में सभी पदवियों से निकृष्टतर करवा लेते होंगे..कैसे समस्त ज्ञान-विज्ञान का महँ स्तर भी उस उन्माद के आगे नतमस्तक हो जाते हैं, आरोप-आक्रमण-बचाव की राजनीति और आर्थिकी का वह लेखा जोखा जिसमें हुक्मरानों की नहीं अपितु आम जन मानस का चेहरा प्रतिबिंबित हो ऐसा बस साहित्य की किसी विधा में ही किसी समर्पित सहित भाव वाले साहित्यकार की लेखनी में अभिव्यक्त हो सकता है. एक जिंदा इतिहास अगर उसी रौ; जिसमें कि जीवन चला हो उस समय विशेष में पढ़ना है, महसूसना है तो बस साहित्य की किसी विधा में ही यह तलाश पूरी हो सकती है. सभी शास्त्रों में निष्पक्ष लेखन पर जोर है और साहित्य में सहित भाव पर जोर . यहीं निर्णायक अंतर हो जाता है. इंगिति इतनी ही है कि साहित्य को पढना-पढ़ना-जानना-समझना उतना ही जरुरी है जितना कि कुछ भी और दुनियादारी की समझ.  

ईश्वर यदि एक उपयोगी संकल्पना भी है तो वरेण्य तो हैं ही...!!!

धर्म की बात होती है तो सबसे पहले मुझे वोल्तेयर की कही ये उक्ति याद आती है-
ईश्वर ना होता तो उसके अविष्कार की आवश्यकता पड़ती. 
“If God did not exist, it would be necessary to invent him.”

यह उक्ति ईश्वर अस्तित्व की बहस को एक संतुलन  दे देती है. इसीलिये यह उक्ति बहुत ही खूबसूरत हो जाती है. ईश्वर हो ना हो, उसकी आवश्यकता तो है, रहेगी. हम मर्त्यशील हैं, समय की सीमा में बंधा है हमारा अस्तित्व. यह सीमित समय ही शायद हमारी सभी बेचैनियों की वज़ह है. जैसे आप कहीं घूमने जाते हो तो उस जगह का पूरा लुत्फ़ लेना चाहते हो, कम से कम उस जगह की ख़ास चीजों को जरूर महसूस करना चाहते हो...वहां भी हम कम समय में अधिक चीजें कर लेना चाहते हैं. कम समय में अधिक चीजें कर लेने के लिए सबसे आवश्यक है कुशल मार्गदर्शन. शायद धर्म की जरूरत यों महसूस की गयी हो. समय का नुकसान बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था तो अनुशासन की आवश्यकता हुई. अनुशासन के लिए अनुशासक एवं मार्गदर्शन के लिए मार्गदर्शक की आवश्यक भूमिका में ईश्वर अवतरित होते हैं. भविष्य की अनिश्चितता एवं प्रकृति के गूढ़ रहस्यों से अनभिज्ञता; ईश्वर में स्वाभाविक आस्था एवं विश्वास का निर्माण कर देती है. 

मनुष्य के विकास के दृष्टिकोण से यह बहुत उपयोगी शुरुआत रही. राज्य, संप्रभुता, शासन, नैतिकता के आधुनिक आविष्कारों से पहले भी तो मनुष्य को इनकी आवश्यकता तो थी ही, तो धर्म और ईश्वर ने इस आकाश को सहज रूप से पूरा किया. वोल्तेयर शायद कहना चाह रहे थे कि संभव है कि ईश्वर हों अथवा ना हों पर निश्चित ही उनकी भूमिका की हमें आवश्यकता जरूर थी. ईश्वर यदि एक उपयोगी संकल्पना भी हैं तो वरेण्य तो हैं ही. ईश्वर का अस्तित्व है तब तो कोई बात ही नहीं है. वोल्तेयर समझाना चाह रहे थे कि फिलहाल ईश्वर-अस्तित्व की बहस बेमानी है. मानव मन चंचल है. चंचल मन अनुशासित करना सहज नहीं. अनुशासन हमारे सीमित समय वाली इयत्ता के लिए आवश्यक है. फिर एक ऐसे मार्गदर्शक के रूप में हमें ईश्वर की भूमिका चाहिए थी जो कठोर मार्गदर्शक हो और सभ्य अनुशासक हो. जीवन-समय का बेहतर उपयोग करने का उद्देश्य कुछ नियमों एवं नैतिकताओं को जन्म देता है. क्रमशः इनका विकास धर्म की विशद आयोजना को लेकर आता है. 

{ Photo Credit : Ayan Bose: Roots of India}

धर्म इसीलिये महत्वपूर्ण है. हम धर्म से इसीलिये अलग नहीं हो पाते क्योंकि इसकी उत्पति का जो हेतु है वो हम सबको संस्पर्श करता है. धर्म की उद्देश्य निश्चित ही पवित्र है...पर इसमें जो कमियां हैं वो इसलिए हैं क्योंकि हममें भी कमियां है. यदि हमने ईश्वर का आविष्कार किया है तो धर्म भी मानवकृत आयोजना है ..सो इसमें भी कमियां है और जैसे जैसे हमारा ज्ञान बोध बढ़ेगा, हमारी यह जिम्मेदारी है कि हम इस पवित्र आयोजना को और भी सम्पूर्ण बनायें. इस जिम्मेदारी का एहसास बताता है कि किसी विश्वास के प्रति कट्टरता कितनी घिनौनी एवं निरर्थक है और यह भी कि कट्टर लोग अपनी कट्टरता से उस विश्वास का सर्वाधिक अहित करते हैं जिसका प्रतिनिधित्व करते वे प्रतीत होते हैं.